Friday, April 17, 2009

जाने क्या बात निकल गयी

First few lines of this poem came up during a conversation :) . I felt that this deserved to be developed into a full-fledged poem. So here it is. Leave your comments. Stay beautiful :)

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कुछ कहते-कहते रात निकल गयी,
सवेरा हुआ और जाने क्या बात निकल गयी,
दो अजनबी कुछ इस तरह मिले कि,
हर मुलाक़ात एक याद बन गयी।

मंजिल का कुछ पता नही,
पर रास्ते है कितने हसी,
क्यूँ न चलू मैं बेफिकर?
जब राहें हो सही।

रात की आस में दिन गुजर गया,
जब रात आई तो मौसम बदल गया,
कोयल रही है कूक, लगे है मोर थिरकने,
मन बावरे में तो जैसे सावन लगा बरसने।

कुछ कहते-कहते रात निकल गयी,
सवेरा हुआ और जाने क्या बात निकल गयी।