Saturday, May 19, 2007

जिंदगी को समझने लगा हूँ मैं

उन उलझन भरी राहों पे बेफिक्र चलने लगा हूँ मैं ,
गिरते-गिरते ही सही अब संभलने लगा हूँ मैं,
अनकही, अनसुनी बातों को परखने लगा हूँ मैं,
हाँ, जिंदगी को समझने लगा हूँ मैं.

हारता ही आ रहा हूँ अब तलक बाजी,
जीतना भूलना नही हूँ ओ मेरे साथी,
क्या हुआ जो गुलिस्तान में फूल न खिले,
क्या हुआ जो मन का कोई मीत न मिले,
हरा हो गर चमन तो फूल खिल ही जायेंगे,
भरा हो प्यार दिल में तो मीत मिल ही जायेंगे.

तलाशता रहा हूँ इन चेहरों में दोस्ती,
धुंधले-धुंधले से लगते है सब चेहरे,
कुछ बहुत काले तो कुछ है मटमैले,
सोचते-सोचते अचानक रुक जाता हूँ मैं,
एक पहचाना सा मटमैला चेहरा दिख रहा है,

मेरा अक्स ही मुझपे हँस रहा है
भोर हो रही है अँधेरा रो रहा है.

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